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प्रथम सर्ग

जनक - सुता ने कहा प्रकृति-महिमा है महती।
पर वह कैसे लोक-यातनाएँ है सहती॥
क्या है हृदय-विहीन ? तो अखिल-हृदय बना क्यों ?
यदि है सहृदय आँखों से ऑसू न छना क्यों ? ॥२८॥

यदि वह जड़ है तो चेतन क्यों, चेत, न, पाया।
दुख-दग्ध संसार किस लिये गया बनाया ॥
कितनी सुन्दर-सरस-दिव्य-रचना वह होती।
जिसमे मानस-हंस सदा पाता सुख-मोती ॥२९॥

कुछ पहले थी निशा सुन्दरी कैसी लसती ।
सिता-साटिका मिले रही कैसी वह हँसती ।।
पहन तारकावलि की मंजुल-मुक्ता-माला।
चन्द्र-वदन अवलोक सुधा का पी पी प्याला ॥३०॥

प्रायः उल्का पुंज पात से उद्भासित वन ।
दीपावलि का मिले सर्वदा दीप्ति - मान-तन ।
देखे कतिपय-विकच-प्रसूनों पर छवि छाई।
विभावरी थी विपुल विनोदमयी दिखलाई ॥३१॥

अमित-दिव्य-तारक-चय द्वारा विभु-विभुता की।
जिसने दिखलाई दिव-दिवता की वर-झॉकी ।।
भव-विराम जिसके विभवों पर है अवलंवित ।
वह रजनी इस काल काल द्वारा है कवलित ॥३२॥