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प्रथम सर्ग

संरयू सरि हो नहीं सरस बन है लहराती।
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलातो ॥
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्र्य भरा है।
दिन में बनती दिव्य - दृश्य - आधार धरा है ॥१८॥

हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती ।
तो दोलित-तरु-राजि कम नही छटा दिखाती।
जल मे तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर ।
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर ।।१९।।

तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते ।
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नही लुभाते ।।
सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली ।
रखती है छवि दिखा मंजुता-मुख की लाली ॥२०॥

है प्रभात उत्फुल्ल-मूर्ति कुसुमों में पाते।
आहा ! वे कैसे हैं फूले नही समाते ।।
मानों वे है महानन्द-धारा मे वहते ।
खोल खोल मुख वर-विनोद-वाते हैं कहते ।।२१।।

है उसकी माधुरी विहग - रट में मिल पाती।
जो मिठास से किसे नहीं है मुग्ध बनाती।
मंद मंद बह वह समीर सौरभ फैलाता।
सुख-स्पर्श सद्गंध - सदन है उसे बताता ॥२२॥