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वैदेही-वनवास

दिन मणि निकले, किरण ने नवल ज्योति जगाई।
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥
शीतल वहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाये।
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाये ॥३॥


सर-सरिता का सलिल सुचारु वना लहराया।
विन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया।
उठ उठ कर नाचने लगी वहु-तरल-तरंगे।
दिव्य बन गई वरुण-देव की विपुल उमंगे ॥४॥

सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी।
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी ।।
बीत गई यामिनी दिवस की फिरी दुहाई।
बनी दिशाये दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई ॥५॥


एक रम्यतम-नगर सुधा-धवलित-धामों पर।
पड़ कर किरणें दिखा रही थी दृश्य-मनोहर ॥
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित-
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्पित ॥६॥

किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसती।
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसती ॥
दर्शक हग उस समय न टाले से टल पाते।
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते ॥७॥