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वैदेही-वनवास

लगी जो ध्वजायें थीं परम - अलंकृता ।
विविध - स्थलों मन्दिरों पर तस्वरों पर ।।
कर नर्तन कर शुभागमन - संकेत - बहु ।
दिखा रही थी दृश्य बड़े ही मुग्धकर ॥१४॥

सलिल - पूर्ण नव - आम्र - पल्लवों से सजे।
पुर - द्वारों पर कान्त - कलस जो थे लसे ।।
वे यह व्यजित करते थे मुझमें, मधुर -
मंगल - मूलक - भाव मनों के हैं बसे ॥१५॥ .

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम ।
नौबत बड़े मधुर - स्वर से थी बज रही।
उसके सम्मुख जो अति - विस्तृत - भूमि थी।
मनोहारिता - हाथों से थी सज रही ॥१६॥

जो विशालतम - मण्डप उसपर था बना।
धीरे धीरे वह सशान्ति था भर रहा।
अपने सज्जित - रूप अलौकिक - विभव से।
दर्शक - गण को बहु - विमुग्ध था कर रहा ॥१७||

सुनकर शुभ - आगमन जनक - नन्दिनी का।
अभिनन्दन के लिए रहे उत्कण्ठ सब ।
कितनों की थी यह अति - पावन - कामना ।
अवलोकेगे पतिव्रता - पद - कंज कब ॥१८॥