पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३३७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९६
वैदेही-वनवास

हरे - भरे - तरुवर मन मारे थे खड़े।
पत्ते कॅप कॅप कर थे ऑसू डालते ॥
कलरव करते आज नही खग - वृन्द थे।
खोतों से वे मुंह भी थे न निकालते ॥४॥

कुछ उजियाला होता फिर विरता तिमिर ।
यही दशा लगभग दो घंटे तक रही ।
तदुपरान्त रवि - किरणावलि ने बन सबल ।
मानी बाते दिवस - स्वच्छता की कही ॥५॥

कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।
दिवनायक ने दिखलाई निज - दिव्यता।
जन - कल - कल से हुआ आकलित कुल - नगर।
भवन भवन में भूरि - भर - गई - भव्यता ।।६।।

अवध - वर - नगर अश्वमेध - उपलक्ष से।
समधिक - सुन्दरता से था सज्जित हुआ।
जन - समूह सुन जनक - नन्दिनी - आगमन ।
था प्रमोद - पाथोधि में निमज्जित हुआ॥७॥

ऋपि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।
संत - महंतों, गुणियों से था पुर भरा॥
विविध - जनपदों के बहु - विध - नर वृन्द से ।
नगर बन गया देव - नगर था दूसरा ॥८॥