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सप्तदश सर्ग

कभी दिखाते वे ऐसे कुछ भाव थे।
जिनसे उर में उठती दुख की आग बल ।।
उनकी खग - मृग तक की प्यारी प्रीति को।
बतलाते थे मृग - शावक के हग - सजल ।।६९।।

द्रवण - शीलता जैसी थी उनमें भरी।
वैसा ही अन्तस्तल दयानिधान था।
अण्डज, पिण्डज जीवों की तो बात क्या।
म्लान - विटप देखे, मुख बनता म्लान था ॥७०॥

दूव कुपुटते भी न उन्हें देखा कभी।
लता और तृण से भी उनको प्यार था ।
प्रेम - परायणता की वे हैं पुत्तली।
स्नेह - सिक्त उनका अद्भुत - संसार था ॥७१॥

आह ! वही क्यों प्रेम से प्रवंचित हुई।
क्यो वियोग - वारिधि - आवर्तों में पड़ी।
जो सतीत्व की लोक - बन्दिता - मूर्ति है।
उसके सम्मुख क्यो आई ऐसी घड़ी ॥७२॥

यह कैसी अकृपा ? क्या इसका मर्म है।
परम - व्यथित - हृदया मैं क्यों समझे इसे ॥
कैसे इतना उतर गई वह चित्त से।
हृदय - वल्लभा आप समझते थे जिसे ॥७३॥