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वैदेही-वनवास
जो साम्राज्ञी हैं जो हैं नृप-नन्दिनी ।
रत्न - खचित - कञ्चन के जिनके हैं सदन ।
उनका न्यून नही बहु बरसों के लिये।
वार बार बनता है वास-स्थान वन ||६४||
जो सर्वोत्तम - गुण - गौरव की मूर्ति हैं।
वसुधा - वांछित जिनका पूत - प्रयोग है।
एक दो नहीं बारह वारह वरस का।
उनका हृदय - विदारक वैध - वियोग है॥६५॥
विधि-विधान में क्या विधि है क्या अविधि है।
विवुध - वृन्द भी इसे बता पाते नहीं॥
सही गई ऐसी घटनाये, पर उन्हें ।
थाम कलेजा सहनेवालों ने सही ॥६६॥
हरण अचानक जब पति प्राणा का हुआ।
उनके प्रतिपालित - खग - मृग मुझको मिले ॥
पर वे मेरी ओर ताकते तक न थे।
वे कुछ ऐसे जनक - सुता से थे हिले ॥६७॥
शुक ने तो दो दिन तक खाया ही नहीं।
करुण - स्वरों से रही बिलखती शारिका ॥
माहीन - मृग- शावक तृण चरता न था।
यद्यपि मैं थी स्वयं बनी परिचारिका ॥६८॥