पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३२९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८८
वैदेही-वनवास

इस प्रकार जब स्वाभाविकता पर हुए।
धीर - धुरंधर - राम आत्म - बल से जयी॥
उसी समय वनदेवी आकर सामने ।
खड़ी हो गई जो थी विपुल व्यथामयी ॥५४॥

उन्हें देखकर रघुकुल पुंगव ने कहा।
कृपा हुई यदि देवि ! आप आई यहाँ।
वनदेवी ने स्वागत कर, सविनय कहा।
आप पधारें, रहा भाग्य ऐसा कहाँ ॥५५।।

किन्तु खिन्न मैं देख रही हूँ आपको।
आह ! क्या जनकजा की सुधि है हो गई।
कहूँ तो कहूँ क्या उह ! मेरे हृदय मे।
आत्रेयी हैं बीज व्यथा के , बो गई ॥५६।।

जनकनन्दिनी जैसी सरला कोमला।
परम - सहृदया उदारता - आपूरिता॥
दयामयी हित - भरिता पर - दुख - कातरा।
करुणा - वरुणालया। अवैध - विदूरिता ॥५७॥

मैंने अवनी में अब तक देखी 'नहीं।
वे मनोज्ञता - मानवता की मूर्ति हैं।
भरी हुई है उनमे भवहित - कारिता ।
पति - परायणा हैं पातिव्रत - पूर्ति है ॥५८||