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वैदेही-वनवास

विधि - विधान में होती निष्ठुरता न जो।
तो श्रुति - कीर्ति परिस्थिति होती दूसरी ॥
नियति - नीति में रहती निर्दयता न जो।
तो अबला बनती न तरंगित - निधि - तरी ॥८२॥

प्रकृति रहस्यों का पाया किसने पता।
व्याह का समय आह रहा कैसा समय ।
जो मुझको उर्मिला तथा श्रुति - कीर्ति को।
मिला देखने को ऐसा विरहाभिनय ।।८३॥
M
किन्तु दुःखमय ए घटनायें लोकहित ।
भव - हित वसुधा - हित के यदि साधन बनीं।
तो वे कैसे शिरोधार्य होंगी नहीं।
मंगलमयी न कैसे जायेंगी गिनी ॥८४||

जैसे शुभ सम्वाद सुनाकर आपने।
आज कृपा कर मुझे बनाया है मुदित ॥
दर्शन देकर तुरत अवधपुर में पहुंच ।
वैसे ही श्रुति - कीर्ति को बनाये सुखित ॥८५।।

दोहा


सीय - वचन सुन पग - परस पाकर मोद - अपार ।
रिपुसूदन ने ली विदा पुत्रों को कर प्यार ॥८६॥