पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३१६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७५
षोड़श सर्ग

अतः पुण्य - बल से अशान्ति विदलित हुई।
हुआ प्रपंच - जनित अपवादों का कदन ॥
बल, विद्या - सम्पन्न सर्व - गुण अलंकृत ।
मिले आपको दिव्य - देवतों से सुअन |७७॥

जैसे आश्रम - वास आपका हो सका।
शान्ति - स्थापन का वर - साधन दिव्य बन ॥
वैसे ही उसने दैविक - वल से किया।
कुश - लव - सदृश अलौकिक सुअनों का सृजन ।।७८॥

कुलपति के दर्शन कर मैं आया यहाँ।
उनसे मुझको ज्ञात हुई यह बात है।
शीघ्र जायँगे अवध आपके सहित वे।
अव वियोग - रजनी का निकट प्रभात है ॥७९॥

कुछ पुलकित, कुछ व्यथित बन सती ने कहा।
शान्ति - स्थापन का भवदीय प्रयत्न भी।
है महान, है रघुकुल - गौरव - गौरवित ।
भरा हुआ है उसमे अद्भुत - त्याग भी ।।८०।।

मेरा आश्रम - वास वैध था, उचित था।
किया आपने जो वह भी कर्त्तव्य था।
किन्तु एक दो नही द्विदश - वत्सर विरह ।
आपकी प्रिया का विचित्र भवितव्य था ।।८१॥