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से बंगाल तक, राजस्थान से मध्य हिन्द तक जिसकी विजय-वैजयन्ती उड़ रही थी, जो प्रज्ञाचक्षु सूरदास की अलौकिक रचना ही से अलंकृत नहीं है, समादरणीय संतो और बड़े बड़े कवियों अथवा महाकवियों की कृतियों से भी माला-माल है। पाँच सौ वर्ष से भी अधिक जिसकी विजय-दुंदुभी का निनाद होता रहा है, आज वह भी विशाल कविता क्षेत्र से उपेक्षित है, यहाँ तक कि खड़ी बोली कविता में उसके किसी शब्द का आ जाना भी अच्छा नहीं समझा जाता। इन दिनों कविता-क्षेत्र पर खड़ी बोली का साम्राज्य है और उसकी विशेषताओं की ओर इन दिनों सबकी दृष्टि है। हिन्दी-भाषा के अन्तर्गत व्रज-भाषा, अवधी, बिहारी, राजस्थानी, बुन्देलखंडी और मध्य हिन्द की सभी प्रचलित बोलियाँ हैं। किन्तु इस समय प्रधानता खड़ी बोली की है। यथा काल जैसे शौरसेनी और व्रज-भाषा का प्रसार था, वैसा ही आज खड़ी बोली का बोल-बाला है। आज दिन कौन सा प्रान्त है, जहाँ खड़ी बोली का प्रसार और विस्तार नहीं। हिन्दी-भाषा के गद्य रूप में जिसका आधार खड़ी बोली है, भारतवर्ष के किस प्रधान नगर से साप्ताहिक और दैनिक पत्र नहीं निकलते। उसके पद्य-ग्रंथों का आदर भारत व्यापी है इसलिए खड़ी बोली आज दिन मँज गयी है और उसका रूप परिमार्जित हो गया है। व्रज-भाषा और अवधी आदि कुछ बोलियाँ अब भी समादरणीय हैं, अब भी उनमें सत्कविता करने वाले सज्जन हैं, विशेष कर व्रज-