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वैदेही-वनवास

दन्त - पंक्ति अमूल्य - मुक्तावलि - सदृश है दिव्य ।
जो चमकते हैं सदा कर चमत्कारक काम ॥११।।
बदन है अरविन्द - सुन्दर इन्दु सी है कान्ति ।
मृदु - हॅसी है बरसती रहती सुधा वसु - याम ।।१२।।
है कपोत समान कंठ परन्तु है वह कम्बु ।
वरद बनते हैं सुने जिसका सुरव विधि बाम ॥१३।।
है सुपुष्ट विशाल वक्षस्थल प्रशंशित पूत ।
दिव समान शरीर में जो है अमर आराम ||१४||
विपुल - बल अवलम्ब हैं आजानु - विलसित बाहु ।
बहु - विभव - आधार हैं जिनके विशद - गुण - ग्राम ॥१५||
है उदात्त - प्रवृत्ति - मय है न्यूनता की पूर्ति ।
भर सरसता से ग्रहण कर उदर अद्भुत नाम ॥१६।।
है सरोरुह सा रुचिर है भक्त - जन - सर्वस्व ।
है पुनीत - प्रगति - निलय पद - मूर्तिमन्त - प्रणाम ॥१७॥
लोक मोहन हैं तथा हैं मंजुता अवलम्ब ।
कोटिशः - कन्दर्प से कमनीयतम हैं राम ॥१८॥३१||

तिलोकी

जव कुश का बहु - गौरव - मय गाना रुका।
वर - मृदंग - वादन तब वे करने लगे।
तंत्री - स्वर में निज हृत्तंत्री को मिला।
यह पद गाकर प्रेम रंग में लव रॅगे॥३२॥