पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३०८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
षोडश सर्ग
- पद
जय जय जयति लोक ललाम ।
नवल - नीरद - श्याम।

शक्ति से शिर - मणि - मुकुट की शुक्ति - सम नृप - नीति ।
सृजन करती है मनोरम न्याय - मुक्ता - दाम ॥ १॥
दमक कर अति - दिव्य - द्युति से दिवसनाथ समान ।
है भुवन - तम - काल, उन्नत - भाल अति - अभिराम ॥२॥
गण्ड - मण्डल पर विलम्बित कान्त - केश - कलाप ।
है उरग • गति मति - कुटलिता शमन का दृढ़ दाम ॥३॥
वहु - कलंक - कदन धनुप - सम - बंक - 5 अवलोक ।
सतत होता शमित है मद - मोह - दल संग्राम ॥४॥
कमल से अनुराग - रंजित - नयन करुण - कटाक्ष ।
है प्रपंची - विश्व के विश्रान्त - जन विश्राम ॥५॥
किन्तुः वे ही देख होते प्रवल - अत्याचार ।
पापकारी के लिये हैं पाप का परिणाम ॥६॥
है उदार - प्रवृत्ति - रत, पर - दुख - श्रवण अनुरक्त ।
युगल - कुण्डल से लसित हो युगल - श्रुति छवि - धाम ॥७॥
है कपोल सरस - गुलाब - प्रसून से उत्फुल्ल ।
हग - विकासक दिव्य - वैभव कलित - ललित - निकाम ।।८।।
उच्चता है प्रकट करती चित्त की, रह उच्च ।
श्वास रक्षण मे निरत बन नासिका निष्काम ॥९॥
अधर है आरक्त उनमें है भरी अनुरक्ति।
मधुर - रस है वरसते रहते वचन अविराम ॥१०}},