पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३०६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

पोड़श सर्ग

जिसको छू कर तन होता संतप्त था।
वह समीर अब सुख - स्पर्श था हो रहा ॥
शीतल होकर सर - सरिताओं का सलिल ।
था उत्ताप तरलतम - तन का खो रहा ॥४॥

आतप के उत्कट पंजे से छूटकर।
सुख की सॉस सकल - तरुवर थे ले रहे।
कुम्हलाये - पल्लव अब पुलकित हो उन्हें ।
हरे - भरे पादप का पद थे दे रहे ॥५॥

जलती - भुनती - लतिका को जीवन मिला।
अविकच - वदना पुनः विकच - वदना बनी ॥
कॉप रही थी जो थोड़ी भी लू लगे।
अव देखी जाती थी वही बनी - ठनी ॥६॥

सघन - वनों में बहु - विटपावृत - कुंज में।
जितने प्राणी आतप - भय से थे पड़े।
तरणि - किरण का पावक - वर्षण देखकर ।
सहम रोंगटे जिनके होते थे खड़े ॥७॥

अब उनका क्रीड़ा - स्थल था शाद्वल बना।
उनमें से कुछ जहाँ तहाँ थे कूदते ॥
थे नितान्त - नीरव जो खोंते अब उन्हें ।
कलरव से. परिपूरित थे अवलोकते ॥८॥