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पंचदश सर्ग
कुश बोले क्या हम न पा सकेंगे मुकुट ।
सीता बोली तुम तो लव से हो बड़े ॥
अतः मुकुट तुमको पहले ही मिलेगा।
दोनों में होंगे अनुपम - हीरे जड़े ॥१४॥
दोनों भ्राता शस्त्र - शास्त्र में निपुण हो।
अवध धाम में पहुंचोगे सानन्द जब ॥
पाकर रविकुल - रवि से दिव सी दिव्यता।
रत्न - मुकुट - मंडित होगे तुम लोग तब ॥१५॥
इसी समय कतिपय - चमकीली - मछलियाँ।
पुलिन - सलिल में तिरती दिखलाई पड़ी ।।
उन्हें देखने लगे लव किलक - किलक कर।
कुश की चञ्चल - ऑखे भी उन पर अड़ी॥१६॥
उभय उन्हें देखते रहे कुछ काल तक।
फिर लव ने ललकित हो मा से यह कहा ॥
मैं लूंगा मछलियाँ क्या उन्हें पकड़ लूं।
मा बोली सुत यह अनुचित होगा महा ॥१७॥
जैसे तुम दोनों 'हो मेरे लाडिले।
तुम्हें साथ ले जैसे मैं हूँ घूमती ॥
गले लगाती हूँ तुमसे खेलती हूँ।
जैसे मैं हूँ तुम्हें प्यार से चूमती ॥१८॥