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नदी-वनवान

सुने उनियां उनकी सत्यवती हंसी।
किन्तु प्यार से मा ने ये बातें कही।
ए है दुहितायें सरिता सुन्दरी की।
गोद में उसी की है. क्रीड़ा कर रही ॥९॥

जननी है सुरमरी, समीरण है जनक ।
हुआ है इन्ही दोनों से इनका मृजन ॥
प है. परम • चचला - सरसा - कोमला।
रवि - कर से है, विलसित इनका तरल - तन ॥१०||

जैसे सम्मुख के सारे - बालुका - कण ।
चमक रहे है. मिले दिवस - मणि की चमक ॥
वैसे ही दिनकर की कान्ति - विभूति से ।
दिव्य बने लहरें भी पाती हैं दमक ॥११॥

तात तुमारे पिता का मनोरम - मुकुट ।
रवि - कर से जैसा बनता है दिव्यतम ||
वह अमूल्य - मणि - मंजुलता - सर्वस्व है।
हग - निमित्त है लोकोत्तर - आलोक सम ॥१२॥

यह सुन लव ने माता का अञ्चल पकड़।
कहा ठुनुक कर अम्मा हम लेगे मुकुट ॥
सीता ने सुत चिवुक थामकर यह कहा।
तात ! तुमारे पिता तुम्हें देगे मुकुट ॥१३॥