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वैदेही-वनवास

लंका की दुर्गति दाम्पत्य - विडम्बना ।
मुझे आज भी करती रहती है व्यथित ॥
हुए याद उसकी होता रोमांच है।
पर वह है प्राकृतिक - गूढ़ता से ग्रथित ॥१४४॥

है अभिनन्दित नही सात्विकी - प्रकृति से।
है पति - पत्नी त्याग परम - निन्दित - क्रिया ॥
मिले दो हृदय कैसे होवेगे अलग ।
अप्रिय - कर्म करेगे कैसे प्रिय - प्रिया ॥१४५।।

वास्तवता यह है, जब पतित - प्रवृत्तियाँ।
कुत्सित - लिप्सा दुर्व्यसनों से हो प्रबल ।।
इन्द्रिय - लोलुपताओं के सहयोग से।
देती हैं सब - सात्विक भावों को कुचल ॥१४६॥

तभी समिष होता विरोध आरंभ है।
जो दम्पति हृदयों में करता छेद है॥
जिससे जीवन हो जाता है विषमतम ।
होता रहता पति - पत्नी विच्छेद है॥१४७॥

जिसमे होती है उच्छंखलता भरी।
जो पामरता कटुता का आधार हो॥
जिसमें हो हिसा प्रति - हिंसा अधमता ।
जिसमे प्यार बना रहता व्यापार हो ॥१४८॥