पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२८

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कई मेर दिल स पूछे, तर तीर नीमकश को।
य खलिश कहाँ स होती ज जिगर क पार होता।

खड़ी बोली की कविता में न तो लघु को दीर्घ बनाया जाता है और न दीर्घ को लघु। उर्दू की कविता के समान उसमें शब्दों का संहार भी नहीं होता। परन्तु कुछ परिवर्त्तन ऐसे हैं जिनको उसने स्वीकार कर लिया है। 'अमृत' शब्द तीन मात्र का है, परन्तु कभी-कभी उसको लिखा जाता है 'अमृत' ही, परन्तु पढ़ा जाता है 'अम्मृत'। बोलचाल में उसका उच्चारण इसी रूप में होता है। बहुत लोगों का यह विचार है कि 'मृ' संयुक्त वर्ण है इसलिए उसके आदि के अक्षर ('अ') का गुरु होना स्वाभाविक है। इसलिए दो 'म' अमृत में नहीं लिखा जाता। परन्तु 'ऋ' युक्त वर्ण संयुक्त वर्ण नहीं माना जाता, इसलिए यह विचार ठीक नहीं है। परन्तु उच्चारण लोगों को भ्रम में डाल देता है। इसलिए उसका प्रयोग प्राय: अमृत के रूप में ही होता है। कभी-कभी छन्दो-गति की रक्षा के लिए 'अमृत' भी लिखा जाता है। संस्कृत का हलन्त वर्ण हिन्दी में विशेष कर कविता में प्राय: हलन्त नहीं लिखा दिखलाता, उसको सस्वर ही लिखते हैं। 'विद्वान' को इसी रूप में लिखेंगे, इसके 'न' को हलन्त न करेंगे। इसमें सुविधा समझी जाती है। संस्कृत में वर्ण-वृत्त का प्रचार है, उसमें हलन्त वर्ण को गणना के समय वर्ण माना ही नहीं जाता।

'रामम् रामानुजम् सीताम् भरतम् भरतानुजम्।
सुग्रीवम् बालि सूनुम् च प्रणमामि पुन: पुन:॥