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वैदेही-वनवास

क्यों अप्रीति पा जाती है उसमें जगह ।
जो उर - प्रीति - निकेतन था जाना गया ।
कैसे कटु बनता है वह मधुमय - वचन ।
कर्ण - रसायन जिसको था माना गया ॥७४।।

जो होते यह वोध जानते मर्म सव ।
दम्पति को अन्यथाचरण से प्रीति हो।
तो यह है अति - मर्म - वेधिनी आपदा ।
क्या विचित्र ! दुर्नीति यदि भरित - भीति हो । ७५॥

जो नर नारी एक सूत्र में बद्ध हैं।
जिनका जीवन भर का प्रिय - सम्बन्ध है।
जो समाज के सम्मुख सद्विधि से बँधे ।
जिनका मिलन नियति का पूत - प्रबंध है ।। ७६।।

उन दोनों के हृदय न जो होवे मिले।
एक दूसरे पर न अगर उत्सर्ग हो ।
सुख मे दुख में जो हो प्रीति न एक सी।
स्वर्ग सा सुखद जो न युगल - ससर्ग हो । ७७ ॥

तो इससे बढ़कर दुष्कृति है कौन सी।
पड़ेगा कलेजा सत्कृति को थामना ।।
हुए सभ्यता - दुर्गति पशुना करों से।
होगी मानवता की अति - अवमानना ।। ८ ।।