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व्रज-भाषा और अवधी का यह नियम है—
'लघु गुरु गुरु लघु होत है निज इच्छा अनुसार।
गोस्वामी तुलसीदास जी से समर्थ महाकवि भी लिखते हैं—
बन्दों गुरु पद पदुम परागा। सरस सुवास सुरुचि अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू॥
पराग को परागा, अनुराग को अनुरागा, चारु को चारू और परिवार को परिवारू कर दिया गया है।
प्रज्ञाचक्षु सूरदासजी लिखते हैं—
जसुदा हरि पालने झुलावै।
दुलरावै हलराइ मल्हावै जोई सोई कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निँदरिया काहे न आनि सोआवै॥
जसोदा को जसुदा, जोई के 'जो' को सोई के 'सो' को और मेरे के 'मे' को लघु कर दिया गया है। गोस्वामी जी के पद्य में लघु को दीर्घ बनाया गया है।
उर्दू में तो शब्दों के तोड़ने-मरोड़ने की परवा ही नहीं की जाती। एक शेर को देखिए—
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर नीमकश को।
यह ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता॥
जिन शब्दों के नीचे लकीर खिंची हुई हैं वे बेतरह तोड़े-मरोड़े गये हैं। लघु को गुरु बनाने तक तो ठिकाना था, पर उक्त शेर में अक्षर तक उड़ गये हैं, शेर का असली रूप यह होगा।