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दिदी-ननवास
पशु - पक्षी के जोड़े भी हैं दीखते।
वे भी हैं दाम्पत्य - बंधनों मे बँधे ।।
वाछनीय है नर • नारी की युग्मता।
मारे - मंत्र इमी मावन से ही सधे ॥५४॥
उसीलिये है विधि - विवाह की पृततम ।
निगमागम द्वारा है वह प्रतिपादिता ।।
है द्विविधा हरती कर मुविधा का सृजन ।
वह दे, वसुधा को दिव जैसी दिव्यता ॥५५॥
जिससे होते एक हैं मिले दो हृदय ।
सरस - सुधा - धाराये सदनों मे वही ॥
भूति - मान बनते हैं जिससे भुवन - जन ।
वह विधान अभिनन्दित होगा क्यों नहीं ॥५६॥
कुल, कुटुम्ब, गृह जिससे है वहु - गौरवित ।
सामाजिकता है जिससे सम्मानिता ।।
महनीया जिससे मानवता हो सकी।
क्यों न बनेगी प्रथित प्रथा वह आद्रिता ।। ५७॥
किन्तु प्रश्न यह है प्रायः जो विषमता।
होती रहती है मानसिक - प्रवृत्ति में ।।
भ्रम, प्रमाद अथवा सुख - लिप्सा आदि से।
कैसे वह न घुसे दम्पति - अनुरक्ति मे ॥५८॥