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चतुर्दश सर्ग

इस प्रकार जव जनक - नन्दिनी सुतों को।
आनन्दित कर पति - गुण - गण थी गा रही ।
रीझ रीझ कर उनके बाल - विनोद पर ।
निज - वचनों से जब थी उन्हें रिझा रही ॥ ३९ ॥

उसी समय विज्ञानवती आकर वहाँ।
शिशु - लीलाये अवलोकन करने लगी।
रमणी - सुलभ - स्वभाव के वशीभूत हो ।
उनके अनुरञ्जन के रगों में रॅगी ।। ४०॥

यह थी विदुषी - ब्रह्मचारिणी प्रायशः ।
मिलती रहती थी अवनी - नन्दिनी से ॥
तर्क वितर्क उठा बहु - वाते - हितकरी।
सीखा करती थी सत्पथ - सङ्गिनी से ॥ ४१ ॥

आया देख उसे सादर महिसुता ने।
बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा ॥
आप कृपा कर लव - कुश को अवलोकिये।
अब न मुझे अवसर बहलाने का रहा ॥४२॥

समागता के पास बैठकर जनकजा।
बोली' कैसे आज आप आई यहाँ।
मुसकाकर विज्ञानवती ने यह कहा।
उठने पर कुछ तर्क और जाऊँ कहाँ ।। ४३ ।।