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वैदेही-वनवास
दिखा दिखा कर श्याम-घटा की प्रिय - छटा।
दोनों - सुअनों से यह कहतीं महि - सुता ।।
ऐसे ही श्यामावदात कमनीय - तन ।
प्यारे पुत्रों तुम लोगों के हैं पिता ॥ ३४ ॥
कहतीं कभी विलोक गुलाव प्रसून की।
बहु - विमुग्ध - कारिणी विचित्र - प्रफुल्लता ।।
हैं ऐसे ही विकच - बदन रघुवंश - मणि ।
ऐसी ही है उनमें महा - मनोज्ञता ।। ३५ ॥
नाम बताकर कुन्द, यूथिका आदि का।
दिखा रुचिरता कुसुम श्वेत - अवदात की
कहतीं ऐसी ही है कीर्ति समुज्वला ।
तुम दोनों प्रिय - भ्राताओं के तात की ॥ ३६॥
लोक - रञ्जिनी ललामता से लालिता।
दिखा जपा सुमनावलि की प्रिय - लालिमा ।
कहती थी यह, तुम दोनों के जनक की।
ऐसी ही अनुरक्ति है रहित कालिमा ॥ ३७ ॥
हरित - नवल - दल में दिखला अंगजों को।
पीले पीले कुसुमों की वर विकचता ।।
कहती यह थी ऐसा ही पति - देव के।
श्यामल - तन पर पीताम्बर है विलसता ॥ ३८॥