यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१८
वैदेही-वनवास
किसको नहीं बना देता है वह सरस ।
भला नही कैसे होते वे रस भरे ॥
नारंगी पर रंग उसी का है चढ़ा।
हैं बसंत के रंग में रंगे संतरे ॥१४॥
___ अंक विलसता कैसे कुसुम - समूह से।
हरे हरे दल उसे नहीं मिलते कही।
नीरसता होती न दूर जो मधु मिले।
तो होता जंबीर नीर - पूरित नहीं ॥१५॥
कंटकिता - वदरी तो कैसे विलसती ।
हो उदार सफला वन क्यों करती भला ।।
जो प्रफुल्लता मधु भरता भू में नही ।
कोविदार कैसे बनता फूला फला ॥१६॥
दिखा श्यामली - मूर्ति की मनोहर - छटा।
बन सकता था वह बहु - फलदाता नहीं।
पॉव न जो जमता महि में ऋतुराज का।
तो जम्बू निज - रंग जमा पाता नही ॥१७॥
कोमलतम किशलय से कान्त नितान्त बन ।
दिखा नील - जलधर जैसी अभिरामता ।।
कुसुमायुध की सी कमनीया - कान्ति पा।
मोहित करती थी तमाल - तरु - श्यामता ॥ १८॥