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चतुर्दश सर्ग
करते थे विस्तार किसी की कीर्ति का।
कितनों में अनुरक्ति उसी की भर सके।
दिखा विकचता, उज्वलता, वर - अरुणिमा ।
श्वेत - रक्त कमनीय - कुसुम कचनार के ॥ ९ ॥
होता था यह ज्ञात भानुजा - अंक में ।
पीले - पीले - विकच बहु - बनज हैं लसे॥
हरित - दलों में पीताभा की छवि दिखा।
थे कदम्ब - तरु विलसित कुसुम - कदम्ब से ॥१०॥
कौन नयनवाला प्रफुल्ल बनता नही।
भला नही खिलती किसके जी की कली।
देखे प्रिय हरियाली, विशद - विशालता।
अवलोके सेमल - ललाम - सुमनावली ॥११॥
नाच नाच कर रीझ भर सहज - भाव में।
किसी समागत को थे बहुत रिझा रहे ।।
बार बार मलयानिल से मिल मिल गले।
चल - दल - दल थे गीत मनोहर गा रहे ॥१२॥
स्तंभ - राजि से सज कुसुमावलि से विलस ।
मिले सहज - शीतल - छबिमय - छाया भली ॥
हरित - नवल - दल से बन सघन जहाँ तहाँ।
तंबू तान रही थी बट - विटपावली ॥१३॥