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वैदेही-वनवास

कितने पादप लाल - लाल - कोंपल मिले।
ऋतु - पति के अनुराग - राग में थे रॅगे॥
बने मंजु - परिधानवान थे बहु - विटप।
शाखाओं में हरित - नवल - दल के लगे ॥ ४ ॥

कितने फल फूलों से थे ऐसे लसे।
जिन्हें देखने को लोचन थे तरसते॥
कितने थे इतने प्रफुल्ल इतने सरस ।
ललक - हगों में भी जो थे रस बरसते ॥ ५॥

रुचिर - रसाल हरे हग - रंजन - दलों में।
लिये मंजु - मंजरी भूरि - सौरभ भरी ॥
था सौरभित बनाता वातावरण को।
नचा मानसों में विमुग्धता की परी ॥ ६॥

लाल - लाल - दल - ललित - लालिमा से विलस ।
वर्णन कर मर्मर - ध्वनि से विरुदावली ॥
मधु - ऋतु के स्वागत करने में मत्त था।
मधु से भरित मधूक बरस सुमनावली ॥ ७ ॥

रख मुंह - लाली लाल - लाल - कुसुमालि से ।
लोक ललकते - लोचन में थे लस रहे।
देख अलौकिक - कला किसी छविकान्त की।
दाँत निकाले थे अनार - तरु हँस रहे ॥ ८॥