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वैदेही-वनवास

सुतों के सहित मेरे आश्रम - वास से।
देश, जाति, कुल, का यदि होता है भला ।।
अन्य व्यवस्था तो कैसे हो सकेगी।
सदा तुलेगी तुल्य न्याय - शीला - तुला ॥९४॥

रघुकुल - पुंगव की मैं हूँ सहधर्मिणी ।
जो है उनका धर्म वही मम - धर्म है।
भली - भॉति मम - उर उसको है जानता।
उनके प्रिय - सिद्धान्तों का जो मर्म है।९५।।


उनकी आज्ञा का पालन मम - ध्येय है।
उनका प्रिय - साधन ही मम - कर्तव्य है।
उनका ही अनुगमन परम - प्रिय - कार्य है।
उनकी अभिरुचि मम - जीवन - मन्तव्य है ॥९६॥

विरह - वेदनाये हों किन्तु प्रसन्नता ।
उनकी मुझे प्रसन्न बनाती रहेगी।
मम - ममता देखे पति - प्रिय - साधन वदन ।
यातनाये सुखपूर्वक सहेगी ॥९७॥

दोहा


नमन जनकजा ने किया, कह अन्तस्तल - हाल ।
विदा हुई कह शुभ - वचन आत्रेयी तत्काल ।।९८