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त्रयोदश सर्ग

विरह - जन्य मेरी पीड़ाये हैं प्रकृत।
किन्तु कभी कर्तव्य - हीन हूँगी न मैं ॥
प्रिय - अभिलाषाये जो हैं प्राणेश की।
किसी काल में उनको भूलूंगी न मैं ॥८९।।

विरह - वेदनाओं में यदि है सबलता।
उनके शासक तो प्रियतम - आदेश हैं।
जो हैं पावन परम न्याय - संगत उचित ।
भव - हितकारक जो सच्चे उपदेश हैं ॥९०॥

महामना नृप - नीति - परायण दिव्य - धी।
धर्म - धुरंधर दृढ़ - प्रतिज्ञ पति - देव हैं।
फिर भी हैं करुणानिधान बहु दयामय ।
लोकाराधन के विशेष अनुरक्त हैं॥९१।।

आत्म - सुख - विसर्जन करके भी वे इसे।
करते आये हैं आजीवन करेगे।
बिना किये परवा दुस्तर - आवर्त की।
आपदाब्धि - मज्जित - जन का दुख हरेगे ।।९२।।

निज - कुटुम्ब का ही, न, एक साम्राज्य का।
भार उन्ही पर है, जो है गुरुतर महा ।।
सारी उचित व्यवस्थाओं का सर्वदा ।
अधिकारी महि में नृप - सत्तम ही रहा ।।९३।।