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२०८ वैदेही-वनवास

आह ! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।
रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा।
देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका ।
मेरा जी बन जाता है व्याकुल वड़ा ॥६४।।

पर विलोककर अनुपम - निग्रह आपका ।
देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता ॥
पर दुख कातरता उदारता से भरी।
अवलोकन कर नयन - नीर की नीरता ॥६५॥

होता है विश्वास विरह - जनिता - व्यथा।
बनेगी न वाधिका पुनीत - प्रवृत्ति की।
दूर करेगी उर - विरक्ति को सर्वदा ।
ममता जनता - विविध - विपत्ति - निवृत्ति की ॥६६।।

पड़ विपत्तियों में भी कव पर - हित - रता।
पर का हित करने से है मुँह मोड़ती ॥
वेधती गिरती टकराती है शिला से।
है न सरसता को सुरसरिता छोड़ती ॥६७॥

महि में महिमामय अनेक हो गये हैं।
यथा समय कम हुई नही महिमामयी ।।
पर प्रायः सव विविध - संकटों मे पड़े।
किन्तु हुए उनपर स्वआत्मबल से जयी ।।६८।।