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त्रयोदश सर्ग

कुलपति - आश्रम की विधि मुझको ज्ञात है।
गर्भवती - पति - रुचि के वह आधीन है।
वह चाहे तो उसे बुला ले या न ले।
पर आश्रम का वास ही समीचीन है॥५९॥

तपोभूमि में जिसका सव संस्कार हो।
आश्रम मे ही जो शिक्षित, दीक्षित, वने ।
वह क्यो वैसा लोक - पूज्य होगा नहीं।
धरा पूत वनती है जैसा सुत जने ॥६०॥

रघुकुल - पुंगव सव वाते हैं जानते।
इसीलिये हैं आप यहाँ भेजी गई ।
कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा।
देख रही हूँ आप अव यही की हुई ॥६१॥

आप सती है, हैं कर्तव्य - परायणा ।
सव सह लेगी कृति से च्युत होंगी नहीं।
किन्तु बहु - व्यथामयी है विरह - वेदना ।
उससे आप यहाँ भी नही वची रही ॥६२।।

आजीवन जीवन - धन से बिछुड़ी न जो।
लंका के छ महीने जिसे छ युग बने ।
उसे क्यों न उसके दिन होंगे व्यथामय ।
जिस वियोग के वरस न गिन पाये गिने ॥६३।।