पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९७
त्रयोदश सर्ग

इधर उधर थे मृग के शावक घूमते ।
कभी छलॉगे भर मानस को मोहते ॥
धीरे धीरे कभी किसी के पास जा।
भोले - दृग से उसका बदन विलोकते ॥९॥

एक द्विरद का बच्चा कतिपय - मास का।
जनक - नन्दिनी के कर से जो था पला ।।
प्रायः फिरता मिलता इस मैदान में।
मातृ - हीन कर जिसे प्रकृति ने था छला ॥१०॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति दिवस ।
जनक - नन्दिनी कर से होता था भला ।।
शान्ति - निकेतन के सब ओर इसीलिये।
दिखलाती थी सर्व - भूत - हित की कला ॥११॥

दो पुत्रो के प्रतिपालन का भार भी।
उन्हें बनाता था न लोक - हित से विमुख ॥
यह ही उनकी हृत्तंत्री का राग था।
यह ही उनके जीवन का था सहज - सुख ।।१२।।

पॉवोंवाले दोनों सुत थे हो गये।
अपनी ही धुन में वे रहते मस्त थे।
फिर भी वे उनको सँभाल उनसे निबट ।
उनकी भी सुनती जो आपद्ग्रस्त थे॥१३॥