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द्वादश सर्ग

बहु - कुसुमित हो बनी विकच - बदना रही।
यथातथ्य आमोदमयी हो यूथिका ॥
किसी समागत के शुभ - स्वागत के लिये।
मॅह मह मॅह मॅह महक रही थी मल्लिका ॥३३॥

रंग जमाता लोक - लोचनों पर रहा।
चपा का चपई रंग बन चारुतर ।।
अधिक लसित पाटल - प्रसून था हो गया।
किसी कुंवर अनुराग - राग से भूरि भर ॥३४॥

उल्लसिता दिखलाती थी शेफालिका।
कलिकाओं के बड़े - कान्त गहने पहन ॥
पथ किसी माधव का थी अवलोकती।
मधु - ऋतु जैसी मुग्धकरी माधवी बन ॥३५॥

पहन हरिततम अपने प्रिय परिधान को।
था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥
बना रही थी जपा - लालिमा को ललित ।
किसी लाल के अवलोकन की लालसा ॥३६॥

इसी बड़ी - सुन्दर - फुलवारी मे कुसुम -
चयन निरत दो - दिव्य मूर्तियाँ थी लसी॥
जिनकी चितवन में थी अनुपम - चारुता ।
सरस सुधा - रस से भी थी जिनकी हॅसी ॥३७॥।