पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२२०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७९
एकादश सर्ग

रिपुसूदन की वातें सुन ।
जी कभी बहुत घबराया॥
या कभी जनक - तनया के ।
आँखों में आंसू आया ॥९४।।

'पर वारम्बार उन्होंने ।
अपने को बहुत सँभाला ॥
धीरज - धर थाम कलेजा।
सब बातों को सुन डाला ॥९५॥

फिर कहा कुँवर - वर जाओ।
यात्रा हो सफल तुम्हारी ॥
पुरहूत का प्रवल - पवि ही।
है पर्वत - गर्व - प्रहारी ॥९६।।

है विनय यही विभुवर से।
हो प्रियतम सुयश सवाया ॥
वसुधा निमित्त बन जाये।
तव विजय कल्पतरुकाया ।।९७॥

दोहा


पग वन्दन कर ले विदा गये दनुजकुल काल ।
इसी दिवस सिय ने जने युगल - अलौकिक-लाल ॥९८।।