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वैदेही-वनवास

सिरधरा उन सबों का है।
पाषाण - हृदय - लवणासुर ॥
जिसने विध्वंस किये हैं।
बहु ग्राम बड़े - सुन्दर - पुर ।।८९॥

उसके वध की ही आज्ञा ।
प्रभुवर ने मुझको दी है।
साथ ही उन्होंने मुझसे ।
यह निश्चित बात कही है॥९०॥

केवल उसका हो वध हो।
कुछ ऐसा कौशल करना।
लोहा दानव से लेना।
भू को न लहू से भरना ।।९१॥

आज्ञानुसार कौशल से।
मैं सारे कार्य करूँगा।
भव के कंटक का वध कर।
भूतल का भार हरूँगा ॥९२।।

हो गया आपका दर्शन ।
आशिष महर्षि से पाई ॥
होगी सफला यह यात्रा।
भू में भर भूरि - भलाई ॥१३॥