पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२११

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७०
वैदेही-वनवास

चातक से जिसके हग हैं।
छबि स्वाति - सुधा के प्यासे॥
प्रतिकूल पड़ रहे हैं अब ।
जिसके सुख - बासर पासे ॥४९॥

जो विरह वेदनाओं से।
व्याकुल होकर है ऊबी॥
हग - वारि - वारिनिधि में जो।
बहु - विवशा बन है डूबी ॥५०॥

हैं कीर्ति करों से गुम्फित ।
जिनकी गौरव - गाथायें ॥
हैं सकुशल सुखिता मेरी।
अनुराग - मूर्ति - माताये ? ॥५१॥

होगये महीनों उनके ।
ममतामय - मुख, न दिखाये ॥
पावनतम - युगल पगों को।
मेरे कर परस न पाये ॥५२॥

श्रीमान् भरत - भव - भूषण ।
स्नेहा सुमित्रा - नन्दन ।
सब दिनों रही करती मैं ।
जिनका सादर अभिनन्दन ॥५३॥