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वैदेही-वनवास
छवि से उड़ते छीटे में।
जब खिल जाती थी कलियाँ॥
चमकीली बूंदों को जब ।
टपकाती सुन्दर - फलियाँ ॥१९॥
जब फल रस से भर भर कर।
था परम - सरस बन जाता ॥
तब हरे-भरे कानन में।
था अजब समा दिखलाता ॥२०॥
वे सुखित हुए जो बहुधा ।
प्यासे रह रह कर तरसे ॥
झूमते . हुए बादल के।
रिमझिम रिमझिम जल बरसे ॥२१॥
तप - ऋतु में जो थे आकुल ।
वे आज हैं फले - फूले ॥
वारिद का बदन विलोके ।
बासर विपत्ति के भूले ॥२२॥
तरु - खग - चय चहक चहक कर।
थे कलोल - रत दिखलाते ।।
वे उमग उमग कर मानो।
थे वारि - वाह गुण गाते ॥२३॥