पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६४
वैदेही-वनवास

छवि से उड़ते छीटे में।
जब खिल जाती थी कलियाँ॥
चमकीली बूंदों को जब ।
टपकाती सुन्दर - फलियाँ ॥१९॥

जब फल रस से भर भर कर।
था परम - सरस बन जाता ॥
तब हरे-भरे कानन में।
था अजब समा दिखलाता ॥२०॥

वे सुखित हुए जो बहुधा ।
प्यासे रह रह कर तरसे ॥
झूमते . हुए बादल के।
रिमझिम रिमझिम जल बरसे ॥२१॥

तप - ऋतु में जो थे आकुल ।
वे आज हैं फले - फूले ॥
वारिद का बदन विलोके ।
बासर विपत्ति के भूले ॥२२॥

तरु - खग - चय चहक चहक कर।
थे कलोल - रत दिखलाते ।।
वे उमग उमग कर मानो।
थे वारि - वाह गुण गाते ॥२३॥