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वैदेही-वनवास

जिन रविकुल - रवि को अवलोके ,
रही कमलिनी सी फूली ।
जिनके परम - पूत भावों की ,
भावुकता पर थी भूली ॥५८॥

सिते! महीनों हुए नही उनका ,
दर्शन मैंने पाया।
विधि - विधान ने कभी नही ,
था मुझको इतना कलपाया ॥५९।।

जैसी तुम हो सुकृतिमयी जैसी -
तुममें सहृदयता
जैसी हो भवहित विधायिनी ,
जैसी तुममें ममता है॥६०॥

मैं हूँ अति - साधारण नारी ,
कैसे वैसी मैं हूँगी।
तुम जैसी महती व्यापकता ,
उदारता क्यों पाऊँगी ॥६१॥

फिर भी आजीवन मैं जनता -
का हित करती आई हूँ।
अनहित औरों का अवलोके ,
कब न बहुत घबराई हूँ ॥६२।।