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वैदेही-वनवास

मुझे सौ सवा सौ कोसों की ,
दूरी भी कलपाती है।
मेरी आकुल ऑखों को
पति - मूर्ति नहीं दिखलाती है॥४८॥

जिसकी मुख - छबि को अवलोके ,
छबिमय जगत दिखाता है।
जिसका सुन्दर विकच - वदन ,
वसुधा को मुग्ध बनाता है॥४९॥

जिसकी लोक - ललाम - मूर्ति ,
भव - ललामता की जननी है।
जिसके आनन की अनुपमता ,
परम - प्रमोद प्रसविनी है ॥५०॥

जिसकी अति - कमनीय - कान्ति से ,
कान्तिमानता लसती है।
जिसकी महा - रुचिर - रचना में ,
लोक - रुचिरता बसती है ॥५१॥

जिसकी दिव्य - मनोरमता में ,
रम मन तम को खोता है।
जिसकी मंजु माधुरी पर ,
माधुर्य निछावर होता है ।।५२।।