पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१९२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

दशम सर्ग

किन्तु महा - गर्जन जना कर
कॅपा कलेजा देती है।
गिरा गिरा कर बिजली जीवन
कितनों का हर लेती है॥३३॥

हिम - उपलों से हरी भरी ,
खेती का नाश कराती है।
जल - सावन से नगर ग्राम ,
पुर को बहु विकल बनाती है ॥३४॥

अतः सदाशयता तुम जैसी ,
उसमें नही दिखाती है।
केवल सत्प्रवृत्ति ही उसमे ,
मुझे नही मिल पाती है ॥३५॥

तुममे जैसी लोकोत्तरता ,
सहज - स्निग्धता मिलती है।
सदा तुमारी कृति - कलिका जिस -
अनुपमता से खिलती है॥३६।।

वैसी अनुरंजनता शुचिता ,
किसमे कहाँ दिखाती है।
केवल प्रियतम दिव्य - कीर्ति ही -
मे वह पाई जाती है ॥३७॥