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वैदेही-वनवास

तात ! देख लो साम - नीति के ग्रहण से।
हुआ प्राणियों का कितना उपकार है।
प्रजा सुरक्षित रही पिसी जनता नहीं।
हुआ लोक - हित मचा न हाहाकार है ।।७१॥

हॉ ! वियोगिनी प्रिया - दशा दयनीय है।
मेरा उर भी इससे मथित अपार है।
किन्तु इसी अवसर पर आश्रम में गमन ।
दोनों के दुख का उत्तम - प्रतिकार है ।।७२।।

जब से सम्बन्धित हम दोनों हुए हैं।
केवल छ महीने का हुआ वियोग है।
रहीं जिन दिनों लंका में जनकांगजा ।
किन्तु आ गया अव ऐसा संयोग है ।।७३।।

जो यह बतलाता है अहह वियोग यह ।
होगा चिरकालिक वरसों तक रहेगा।
अतः सताती है यह चिन्ता नित मुझे। .
पति प्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा ॥७४।।

पर मुझको इसका पूरा विश्वास है।
हो अधीर भी तजेगी नहीं धीरता ।।
प्रिया करेंगी मम - इच्छा की पूर्ति ही।
पूत रहेगी नयन - नीर की नीरता ।।७५।।