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नवम सर्ग

मैं हूँ व्यथित अधिकतर - व्यथिता है प्रिया ।
क्योंकि सताती है आ आ सुख - कामना ।
है यह सुख - कामना एक उन्मत्तता ।
भरी हुई है इसमें विविधा - वासना ॥६६॥

यह सरसा - सस्कृति है यह है प्रकृति - रति ।
यह विभाव संसर्ग - जनित - अभ्यास है।
है यह मूर्ति मनुज के परमानन्द की।
वर - विकास, उल्लास, विलास, निवास है ॥६७॥

त्याग - कामना भी नितान्त कमनीय है।
मानवता - महिमा द्वारा है अंकिता ।।
वन कर्त्तव्य परायणता से दिव्यतम ।
लोक - मान्य - मन्त्रों से है अभिमंत्रिता ॥६८॥

मैंने जो है त्याग किया वह उचित है।
ऐसा ही करना इस समय सुकर्म था ।
इसीलिये सहमत विदेहजा भी हुई।
क्योकि यही सहधर्मिणी परम धर्म था ॥६९।।

कितने सह साँसते बहुत दुख भोगते ।
कितने पिसने पड़ प्रकोप तलवों तले ।।
दमन - चक्र यदि चलता तो बहता लहू ।
वृथा न जाने कितने कट जाते गले ॥७०॥