पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१७८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०
वैदेही-वनवास

है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता ।
अनीति रत में कहाँ नीति - अस्तित्व है ।।
वह है नरपति नही जो नही जानता।
नरपतित्व का क्या दत्तरदायित्व है ॥६१।।

कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर ।
यथा - शक्ति परहित करना है चाहता ।।
देश, जाति, भव - हित अवसर अवलोक कर ।
प्रायः वह निज - हित को भी है त्यागता ॥६२॥

यदि ऐसा है तो क्या यह होगा विहित ।
कोई · तृप अपने प्रधान - कर्त्तव्य का ।।
करे त्याग निज के सुख-दुख पर दृष्टि रख ।
अथवा मान निदेश मोह - मन्तव्य का ॥६३।।

जिसका जितना गुरु - उत्तरदायित्व है।
उसे महत उतना ही बनना चाहिये ।।
त्याग सहित जिसमें लोकाराधन नही।
वह लोकाधिप कहलाता है किस लिये ॥६४॥

बात तुम्हें लोकापवाद की ज्ञात है।
मुझे लोक - उत्पीड़न वांछित है नही ।।
अतः बनूँ मैं क्यों न लोक - हित - पथ - पथिक ।
जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वही ॥६५॥