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नवम सर्ग

आर्या की प्रिय - सेविका सुकृतिवती ने।
अभी गान जो गाया है उद्विग्न बन ॥
अहह भरा है उसमें कितना करुण - रस ।
वह है राज - भवन दुख का अविकल- कथन ॥३६॥

गृहजन परिजन पुरजन की तो बात क्या।
रथ के घोड़े व्याकुल हैं अब तक बड़े ।।
पहले तो आश्रम को रहे न छोड़ते।
चले चलाये तो पथ में प्राय: अड़े ॥३७॥

घुमा घुमा शिर रहे रिक्त - रथ देखते ।
थे निराश नयनों से ऑसू ढालते ॥
वार बार हिनहिना प्रकट करते व्यथा ।
चौंक चौक कर पॉव कभी थे डालते ॥३८॥

आर्या कोमलता ममता की मूर्ति हैं।
हैं सद्भाव - रता उदारता पूरिता ॥
है लोकाराधन - निधि - शुचिता - सुरसरी ।
मानवता - राका - रजनी की सिता ॥३९॥

फिर कैसे होती न लोक में पूजिता ।
क्यों न अदर्शन उनका जनता को खले ।।
किन्तु हुई निर्विन मांगलिक - क्रिया है।
हित होता है पहुँचे सुर पादप तले ॥४०॥