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वैदेही-वनवास
समय समय पर देव - मंदिरों में पहुँच ।
होती थीं देवी समान वे पूजिता ॥
सकल - न्यूनताओं की करके पूर्तियाँ।
सत्प्रवृत्ति को रही बनाती ऊर्जिता ॥३१॥
वे निज प्रिय - रथ पर चढ़ कर संध्या - समय ।
अटन के लिये जब थी बाहर निकलती ॥
तब खुलते कितने लोगों के भाग्य थे।
उन्नति में थी बहु - जन अवनति बदलती ॥३२॥
राज-भवन से जब चलती थीं उस समय ।
रहते उनके साथ विपुल - सामान थे।
जिनसे मिलता आत - जनों को त्राण था ।
बहुत अकिञ्चन बनते कञ्चनवान थे ॥३३॥
दक्ष दासियाँ जितनी रहती साथ थीं।
वे जनता - हित - साधन की आधार थीं॥
मिले पंथ में किसी रुन विकलांग के।
करती उनके लिये उचित - उपचार थीं ॥३४॥
इसी लिये उनके अभाव में आज दिन ।
नहीं नगर में ही दुख की धारा बही ।।
उदासीनता है कह रही उदास हो।
राज-भवन भी रहा न राज - भवन वहीं ॥३५॥