पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१७

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मैं काशी विश्वविद्यालय में पहुँच गया था। शिक्षा के समय योग्य विद्यार्थी-'समुदाय' ईश्वर अथच संसार-सम्बन्धी अनेक विषय उपस्थित करता रहता था। उनमें कितने श्रद्धालु होते, कितने सामयिकता के रंग में रँगे शास्त्रीय और पौराणिक विषयों पर तरह-तरह के तर्क-वितर्क करते। मैं कक्षा में तो यथाशक्ति जो उत्तर उचित समझता दे देता। परन्तु इस संघर्ष से मेरे हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि इन विषयों पर कोई पद्य-ग्रंथ क्यों न लिख दिया जाए। निदान इस विचार को मैंने कार्य्य में परिणत किया और सामयिकता पर दृष्टि रखकर मैंने एक विशाल-ग्रंथ लिखा। परन्तु इस ग्रंथ के लिखने में एक युग से भी अधिक समय लग गया। मैंने इस ग्रंथ का नाम 'पारिजात' रखा। इसके उपरान्त 'वैहेदी-वनवास' की ओर फिर दृष्टि फिरी। परमात्मा के अनुग्रह से इस कार्य्य की भी पूर्त्ति हुई। आज 'वैदेही-वनवास' लिखा जाकर सहृदय विद्वज्जनों और हिन्दी-संसार के सामने उपस्थित है। महाराज रामचन्द्र मर्य्यादा पुरुषोत्तम, लोकोत्तर-चरित और आदर्श नरेन्द्र अथच महिपाल हैं, श्रीमती जनक-नन्दिनी सती-शिरोमणि और लोक-पूज्या आर्य्य-बाला हैं। इनका आदर्श, आर्य्य-संस्कृति का सर्वस्व है, मानवता की महनीय विभूति है, और है स्वर्गीय-सम्पत्ति-सम्पन्न। इसलिये इस ग्रंथ में इसी रूप में इसका निरूपण हुआ है। सामयिकता पर दृष्टि रखकर इस ग्रंथ की रचना हुई है, अतएव इसे बोधगम्य और बुद्धिसंगत बनाने की चेष्टा की गयी है। इसमें असम्भव घटनाओं