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नवम सर्ग

उसकी स्वर लहरी थी उर को बेधती।
नयन से गिराती जल उसकी तान थी।
एक गायिका करुण - भाव की मूर्ति बन ।
आहे भर भर कर गाती यह गान थी ।।८।

गान


आकुल ऑखे तरस रही हैं।


बिना विलोके मुख-मयंक छबि पल पल ऑसू बरस रही हैं।
दुख दूना होता जाता है सूना घर धर धर खाता है।
ऊब ऊब उठती हूँ मेरा जी रह रह कर घबराता है।
दिन भर आहे भरती हूँ मैं तारे गिन गिन रात बिताती।
आ अन्तस्तल मध्य न जाने कहाँ की उदासी है छाती ।
शुक ने आज नही मुँह खोला नही नाचता दिखलाता है।
मैना भी है पड़ी मोह में उसके हग से जल जाता है ।।
देवि | आप कब तक आयेगी ऑखे हैं दर्शन की प्यासी।
थाम कलेजा कलप रही है पड़ी व्यथा - वारिधि में दासी ॥९॥

तिलोकी


रघुकुल पुंगव ने पूरा गाना सुना।
धीर धुरंधर करुणा - वरुणालय बने ।
इसी समय कर पूजित - पग की वन्दना ।
खड़े दिखाई दिये प्रिय - अनुज सामने ॥१०॥