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वैदेही-वनवास

प्रिय से यह कहना महान - उद्देश्य से।
अति पुनित - आश्रम में है उपनीत - तन ।
किन्तु प्राण पति पद - सरोज का सर्वदा ।
बना रहेगा मधुप सेविका मुग्ध - मन ॥५९॥

मेरी अनुपस्थिति में प्राणाधार को।
विविध - असुविधाये होंवेंगी इसलिये ।।
इधर तुम्हारी दृष्टि अपेक्षित है अधिक ।
सारे सुख कानन में तुमने हैं दिये ॥६०॥

यद्यपि तुम प्रियतम के सुख - सर्वस्व हो ।
स्वयं सभी समुचित सेवाये करोगे।
किन्तु नहीं जी माना इससे की विनय ।
स्नेह - भाव से ही आशा है भरोगे ॥६१॥

सुन विदेहजा - कथन सुमित्रा - सुअन ने।
अश्रु - पूर्ण - हग से आज्ञा स्वीकार की।
फिर सादर कर मुनि - पद सिय - पग वन्दना।
अवध - प्रयाण - निमित्त प्रेम से विदा ली ॥६२।।

दोहा


कर मुनिवर की वन्दना रख विभूति - विश्वास ।
जाकर आश्रम में किया जनक-सुता ने वास ॥६३॥