यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२३
अष्टम सर्ग
जिसकी परिखा रहा अगाध उदधि बना।
जिसका रक्षक स्वर्ग - विजेता - वीर था । '
जिसमे रहते थे दानव - कुल - अग्रणी ।
जिसका कुलिशोपम अभेद्य - प्राचीर था ॥४४॥
जिसे देख कम्पित होते दिग्पाल थे।
पचभूत जिसमे रहते भयभीत थे।
कॅपते थे जिसमे प्रवेश करते त्रिदश।
जहाँ प्रकृत - हित पशुता में उपनीत थे।।४५।।
उस लका में एक तरु तले आपने ।
कितनी अधियाली राते दी हैं बिता ।।
अकली नाना दानबियों के बीच में ।
बहुशः - उत्पातों से हो हो शंकिता ॥४६॥
कितनी फैला बदन निगलना चाहती।
कितनी वन विकराल बनाती चिन्तिता ।।
ज्वालाये मुख से निकाल ऑखे चढ़ा।
कितनी करती रहती थीं आतंकिता ॥४७॥
कितनी दॉतो को निकाल कटकटा कर ।
लेलिहान - जिह्वा दिखला थीं कूदती ।।
कितनी कर वीभत्स - काण्ड थीं नाचती।
आप देख जिसको ऑखे थी मूंदती ॥४८॥