पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१६

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का आविर्भाव है। 'प्रिय-प्रवास' की रचना के उपरान्त मेरी इच्छा 'वैदेही-वनवास' प्रणयन की हुई। उसकी भूमिका में मैंने यह बात लिख भी दी थी। परन्तु चौबीस वर्ष तक मैं हिन्दी-देवी की यह सेवा न कर सका। कामना-कलिका इतने दिनों के बाद ही विकसित हुई। कारण यह था कि उन दिनों कुछ ऐसे विचार सामने आये, जिनसे मेरी प्रवृत्ति दूसरे विषयों में ही लग गई। उन दिनों आज़मगढ़ में मुशायरों की धूम थी। बन्दोबस्त वहाँ हो रहा था। अहलकारो की भरमार थी। उनका अधिकांश उर्दू-प्रेमी था। प्रायः हिन्दी भाषा पर आवाज़ा कसा जाता, उसकी खिल्ली उड़ाई जाती, कहा जाता हिन्दी-वालों को बोलचाल की फड़कती भाषा लिखना ही नहीं आता। वे मुहावरे लिख ही नही सकते। इन बातों से मेरा हृदय चोट खाता था, कभी कभी मैं तिलमिला उठता था। उर्दू, संसार के एक प्रतिष्ठित मौलवी साहब जो मेरे मित्र थे और आजमगढ़ के ही रहने वाले थे, जब मिलते, इस विषय में हिन्दी की कुत्सा करते, व्यंग बोलते। अतएव मेरी सहिष्णुता की भी हद हो गई। मैंने बोलचाल की मुहावरेदार भाषा में हिन्दी-कविता करने के लिये कमर कसी। इसमें पाँच-सात बरस लग गये और 'बोल चाल' एवं 'चुभते चौपदे' और 'चोखे चौपदे' नामक ग्रन्थों की रचना मैंने की। जब इधर से छुट्टी हुई, मेरा जी फिर 'वैदेही-वनवास' की ओर गया। परन्तु इस समय एक दूसरी धुन सिर पर सवार हो गई। इन दिनों