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अष्टम सर्ग

वंश - वृद्धि, प्रतिपालन - प्रिय - परिवार का।
वर्द्धन कुल की कीर्ति कर विशद - साधना ।।
मानव वन करना मानवता अर्चना ।
है सत्संतति कर्म, लोक - आराधना ॥२४॥

ऐसा ही सुत सकल - जगत है चाहता।
किन्तु अधिक वांछित है नृपकुल के लिये ।।
क्योंकि नृपति वास्तव मे होता है नृपति ।
वही धरा को रहता है धारण किये ॥२५॥

इसीलिये कुछ धर्म, प्राण, नृपकुल - तिलक ।
गर्भवती' निज प्रिय - पत्नी को समय पर ।।
कुलपति आश्रम में प्रायः है भेजते ।
सव - लोक - हित - रत हो जिससे वंशधर ।।२६।।

रघुकुल - रंजन के अति - उत्तम - कार्य का।
अनुमोदन करता हूँ सच्चे - हृदय से ।
कहियेगा नृप - पुंगव से यह कृपा कर।
सब कुछ होता सांग रहेगा समय से ॥२७॥

पुत्रि जनकजे ! मैं कृतार्थ हो गया हूँ।
आप कृपा करके यदि आई हैं यहाँ ।।
वे थल भी हैं अब पावन - थल हो गये।
आपका परम - शुचि - पग पड़ पाया जहाँ ॥२८॥